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वह चेतना जो स्वयं को मानव के रूप में जानती है - यह सीमित ज्ञान है जो मनुष्य को नश्वर, पतित, पापी, त्रुटिओं का पुतला और इंद्रियों के अधीन गुनाहों का देवता मानती है। और इसी कारण | वह चेतना जो स्वयं को मानव के रूप में जानती है - यह सीमित ज्ञान है जो मनुष्य को नश्वर, पतित, पापी, त्रुटिओं का पुतला और इंद्रियों के अधीन गुनाहों का देवता मानती है। और इसी कारण आत्मिक चेतना [[Special:MyLanguage/Son of man|मनुष्य के पुत्र]] के साथ घोषणा करती है: "मैं एक तुच्छ मानव हूं" और स्वयं से कुछ नहीं कर सकता। मुझ में निहित पिता का रूप ([[Special:MyLanguage/I AM Presence|ईश्वरीय स्वरूप]]) ही भगवान् के सारे कार्य करता है।''<ref>जॉन ५:३०; १४:१०.</ref> | ||
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