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(1) '''विद्यार्थी:''' इस चरण के अंतर्गत व्यक्ति गुरु के लेखन और शिक्षाओं का अध्ययन कर के उसका छात्र तो बन जाता है, परन्तु अपने गुरु के प्रति कोई विशेष जिम्मेदारी ग्रहण नहीं करता। वह अपने समुदाय में आने-जाने, अपने अनुयायियों की संगति और उनके समर्पण के फल का आनंद लेने के लिए स्वतंत्र है लेकिन उसने अपने गुरु के प्रति कोई प्रतिज्ञा या वचनबद्धता नहीं ली है। ऐसा भी हो सकता है कि शिष्य इस बात का प्रयत्न कर रहा हो कि गुरु स्वयं उसे एक सेवक या सह-सेवक (चेले) के रूप में स्वीकार कर लें।<ref>II Tim। २:१५.</ref> | (1) '''विद्यार्थी:''' इस चरण के अंतर्गत व्यक्ति गुरु के लेखन और शिक्षाओं का अध्ययन कर के उसका छात्र तो बन जाता है, परन्तु अपने गुरु के प्रति कोई विशेष जिम्मेदारी ग्रहण नहीं करता। वह अपने समुदाय में आने-जाने, अपने अनुयायियों की संगति और उनके समर्पण के फल का आनंद लेने के लिए स्वतंत्र है लेकिन उसने अपने गुरु के प्रति कोई प्रतिज्ञा या वचनबद्धता नहीं ली है। ऐसा भी हो सकता है कि शिष्य इस बात का प्रयत्न कर रहा हो कि गुरु स्वयं उसे एक सेवक या सह-सेवक (चेले) के रूप में स्वीकार कर लें।<ref>II Tim। २:१५.</ref> | ||
(2) '''शिष्य ([[Special:MyLanguage/chela|चेला]]):''' ऐसा व्यक्ति जो गुरु के साथ एक बंधन में बंधने की इच्छा रखता है, जो गुरु के प्रकाशित लेखों के बजाय सीधे गुरु द्वारा सीखना चाहता है। शिष्य अपनी कार्मिक उलझनों और सांसारिक इच्छाओं के जाल से निकलकर गुरु का अनुसरण करता है।<ref>मैट ४:१९; मार्क्स १:१७</ref> शिष्य गुरु की सेवा के दौरान ब्रह्मांडीय आत्मा (Cosmic Christ) की दीक्षा प्राप्त करता है।अब शिष्य का दिल, दिमाग और आत्मा विद्यार्थी के रूप प्राप्त की गई शिक्षाओं के प्रति कृतज्ञता महसूस करता है और उसके दिल में सबके प्रति निस्वार्थ प्रेम जन्म लेता है। यह प्रेम उसे बलिदान देने, निःस्वार्थ सेवा करने और प्रत्येक व्यक्ति के भीतर के ईश्वर को स्वयं को समर्पण करने को प्रेरित करता है। जब उसकी निस्वार्थं सेवा का स्तर इतना अधिक हो जाता है कि ईश्वर के अनुसार "संतोषजनक" होता है और शिष्य अपनी त्रिदेव ज्योत और, कर्म को संतुलित करने में लग जाता है, तो वह अगले पायदान पर चढ़ने के लिए तैयार हो जाता है। | (2) '''शिष्य ([[Special:MyLanguage/chela|चेला]]):''' ऐसा व्यक्ति जो गुरु के साथ एक बंधन में बंधने की इच्छा रखता है, जो गुरु के प्रकाशित लेखों के बजाय सीधे गुरु द्वारा सीखना चाहता है। शिष्य अपनी कार्मिक उलझनों और सांसारिक इच्छाओं के जाल से निकलकर गुरु का अनुसरण करता है।<ref>मैट ४:१९; मार्क्स १:१७</ref> शिष्य गुरु की सेवा के दौरान ब्रह्मांडीय आत्मा (Cosmic Christ) की दीक्षा प्राप्त करता है।अब शिष्य का दिल, दिमाग और जीव-आत्मा विद्यार्थी के रूप प्राप्त की गई शिक्षाओं के प्रति कृतज्ञता महसूस करता है और उसके दिल में सबके प्रति निस्वार्थ प्रेम जन्म लेता है। यह प्रेम उसे बलिदान देने, निःस्वार्थ सेवा करने और प्रत्येक व्यक्ति के भीतर के ईश्वर को स्वयं को समर्पण करने को प्रेरित करता है। जब उसकी निस्वार्थं सेवा का स्तर इतना अधिक हो जाता है कि ईश्वर के अनुसार "संतोषजनक" होता है और शिष्य अपनी त्रिदेव ज्योत और, कर्म को संतुलित करने में लग जाता है, तो वह अगले पायदान पर चढ़ने के लिए तैयार हो जाता है। | ||
(3) '''मित्र:''' जो लोग गुरु के मित्र के रूप में जाने जाते हैं वे निमंत्रण द्वारा प्रवेश करते हैं - "अब से मैं तुम्हें सेवक नहीं बल्कि मित्र कहूंगा"<ref>जॉन १५.</ref>-अब से तुम एक साथी और सहकर्मी के रूप में मेरे साथ सभी जिम्मेदारियों को वहन करोगे। मित्र गुरु के प्रकाश का भागीदार होने के साथ साथ गुरु का सारा बोझ भी उठाता है। वह [[Special:MyLanguage/Abraham|अब्राहम]] और अन्य चेलों के समान ही मित्रता के गुणों को प्रदर्शित करता है, और पूर्ण वफादारी से गुरु तथा उसके उद्देश्य को सुविधा, सांत्वना, सलाह और समर्थन प्रदान करता है। | (3) '''मित्र:''' जो लोग गुरु के मित्र के रूप में जाने जाते हैं वे निमंत्रण द्वारा प्रवेश करते हैं - "अब से मैं तुम्हें सेवक नहीं बल्कि मित्र कहूंगा"<ref>जॉन १५.</ref>-अब से तुम एक साथी और सहकर्मी के रूप में मेरे साथ सभी जिम्मेदारियों को वहन करोगे। मित्र गुरु के प्रकाश का भागीदार होने के साथ साथ गुरु का सारा बोझ भी उठाता है। वह [[Special:MyLanguage/Abraham|अब्राहम]] और अन्य चेलों के समान ही मित्रता के गुणों को प्रदर्शित करता है, और पूर्ण वफादारी से गुरु तथा उसके उद्देश्य को सुविधा, सांत्वना, सलाह और समर्थन प्रदान करता है। | ||
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